Monday, November 22, 2010

हिन्दू परंपरा में मांसाहार thakur

वर्तमान में हिन्दू भाइयों की दृष्टि में कुरबानी करना धार्मिक रीति तो क्या, घोर पाप है, परंतु अतीत में बौद्धों और जैनियों के प्रभाव से पूर्व ऐसी किसी धारणा का अस्तित्व न केवल नहीं था बल्कि हिन्दू ग्रंथों में आज भी कुरबानी और मांस भक्षण का उल्लेख मौजूद है। मनु स्मृति जिसे समाज का एक वर्ग ब्राह्मणों द्वारा रचित विधान और व्यवस्था का नाम देता है, के पंचम अध्याय का अधिकतर भाग कुरबानी तथा मांस भक्षण पर ही आधारित है। उदाहरण के लिए -
यज्ञार्थं ब्राह्मणैर्वध्याः प्रशस्ता मृगपक्षिणः ।
भृत्यानां चैव वृत्यर्थमगस्त्यो ह्याचरत्पुरा ।। (मनु. 5,22)
अर्थात यज्ञ के लिए तो अवश्य तथा रक्षणीय की रक्षा के लिए शास्त्र-विहित मृग और पक्षियों का वध करे। ऐसा अगस्त्य ऋषि ने पहले किया था।
प्राणास्यान्नमिदं सर्वं प्रजापतिरकल्पयत् ।
स्थावर। जंगमं चैव सर्व प्राणस्य भोजनम् ।। (मनु. 5, 28)
अर्थात प्रजापति ने जीव का सब कुछ खाने योग्य कहा है। सब स्थावर (फल, सब्ज़ी आदि) तथा जंगम (पशु-पक्षी, जलचर आदि) जीव जीवों के खाद्य भक्ष्य हैं।
नात्ता दुष्यत्यदन्नाद्यान्प्राणिनोऽहन्यहन्यपि ।
धात्रैव सृष्टा ह्याद्याश्च प्राणिनात्तार एव च ।। (मनु. 5, 30)
अर्थात प्रतिदिन भक्ष्य जीवों को खाने वाला भी भक्षक दोषी नहीं होता है, क्योंकि सृष्टा ने ही भक्ष्य तथा भक्षक, दोनों को बनाया है।
नाद्यादविधिना मांस विधिज्ञोपनदि द्विजः । (मनु. 5, 33)
अर्थात विधान को जानने वाला द्विज बिना आपत्तिकाल में पड़े विधिरहित मांस को न खाए।
नियुक्तस्युक्त यथान्यायं यो मांसं नात्ति मानवः ।
स प्रेत्य पशुतां याति संभवानेकविंशतिम् ।। (मनु. 5, 35)
अर्थात शास्त्रानुसार नियुक्त जो मनुष्य मांस को नहीं खाता है, वह मर कर इक्कीस जन्म तक पशु होता है।
यज्ञार्थं पशवः सृष्टा स्वयमेव स्वयंभुवा ।
यज्ञस्य भूत्यै सर्वस्य यस्याद्यज्ञे वधोर्वधः ।। (मनु. 5, 39)
अर्थात सृष्टा ने यज्ञ के लिए पशुओं को स्वयं बनाया है और यज्ञ संपूर्ण संसार की उन्नति के लिए है, इस कारण यज्ञ में पशु का वध वध नहीं है।
उपरोक्त ‘लोकों से स्पष्ट है कि स्मृतिकार की दृष्टि में केवल विधिरहित वध का निषेध है। ईशदूतों की सिखलाई विधि के अनुसार ईश्वर का नाम लेकर कुरबानी करना उत्तम है और कुरबानी या यज्ञ का मांस न खाना पाप है।
आजकल मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र जी की गाथाएं बड़ी लोकप्रिय हैं, परन्तु उनकी गाथाओं के मूल आधार वाल्मीकि रामायण का साधारण जनता को कम ही ज्ञान है। वाल्मीकि रामायण में अनेकों स्थानों पर श्री रामचन्द्र जी के शिकार करने और मांस खाने का उल्लेख है। केवल एक उदाहरण यहां उद्धृत किया जा रहा है -
तां तदा दर्शयित्वा तु मैथिली गिरिनिम्नगाम् ।
निषसाद गिरिप्रस्थे सीतां मांसेन छन्दयन् ।।
इदं मध्यमिदं स्वादु निष्टप्तमिद मग्निना ।
एवमास्ते स धर्मात्मा सीतया सह राघवः ।।
(वाल्मीकि रामायण, अयोध्या काण्ड, 96, 1 व 2)
अर्थात इस प्रकार सीता जी को (नदी के) दर्शन कराकर उस समय श्री रामचन्द्र जी उनके पास बैठ गए और तपस्वी जनों के उपभोग में आने योग्य मांस से उनका इस प्रकार लालन करने लगे, ‘‘इधर देखो प्रिये, यह कितना मुलायम है, स्वादिष्ट है और इसको आग पर अच्छी तरह सेका गया है।‘‘
इसके अतिरिक्त श्री रामचन्द्र जी के मृगादि के शिकार तथा मांस खाने के वृतान्त के लिए वाल्मीकि रामायण में देखें - अयोध्या काण्ड, 52-102; 56-22 से 28; और अरण्य काण्ड 47-23 व 24 आदि।
पाराशर, पतंजलि और याजनवल्क्य के मांस भक्षण संबंधी उद्धरण तो वर्तमान अज्ञान की स्थिति में प्रस्तुत करना उचित ही नहीं है क्योंकि उससे शाकाहारियों और गौ-प्रेमियों की भावनाएं उत्तेजित होंगी। यद्यपि उन्हें धार्मिक भावनाएं नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ये उद्धरण तो धार्मिक ग्रंथों के ही हैं।

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